रक्षा बंधन पर्व में मुक्ति का पर्व II रक्षा
बंधन पर्व पर निबंध II रक्षा
बंधन पर निबंध in Hindi II रक्षा
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क्यों मनाया जाता है इन हिंदी II रक्षा
बंधन का महत्व इन हिंदी II रक्षा
बंधन पर निबंध II रक्षा
बंधन क्यों मनाया जाता है 2020
सूत रेशम का मात्र एक धागा भाई-बहन को न
सिर्फ प्रेम और सम्मान के बन्धनों में बंधता है,
बल्कि इसके जरिए मुक्ति का एहसास
भी जगा
देता है. रक्षा की उदात्त भावना के जरिए आपसी
प्रेम का एक भयमुक्त सुन्दर
संसार रचता है....
रक्षा बंधन
संसार जब भारत की ओर देखता है तो उसे
धार्मिक चेतना और सांस्कृतिक चेतना के दो ऐसे शिखर दिखाई देते हैं, जिनका मुकाबला
संसार में कहीं नहीं हो सकता. धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में भारत ने जो कुछ
पाया है, वह अद्भुत है. शायद यही कारण है कि आज संसार भौतिक उत्थान के शीर्ष पर
पहुंचकर भी जब जीवन का मर्म जानना चाहता है तो वह भारत की ओर ही देखता है. धर्म और
संस्कृति के आयाम तो अनेक हैं, लेकिन प्रसंग श्रावणी पर्व रक्षाबंधन का है तो
क्यों न हम भी धर्म और संस्कृति के इस आनन्द प्रसंग पर ही कुछ देर ठहरकर इसे निहार
लें, ताकि कुछ रेशम और सूत के धागे अपनी कथा कह सकें.
श्रावणी पर्व या रक्षा बन्धन से जुड़ी अनेक
कथाएँ हैं, पर जो कथाएँ हम बहुधा सुनते हैं, उनमें पहली है कृष्ण और द्रौपदी की.
कहते हैं, एक बार जब भगवान कृष्ण युद्धरत थे, तब उनके हाथ से सुदर्शन चक्र इतनी
गति से छूता कि उनकी अंगुली से रक्त बहने लगा. तब द्रौपदी ने अपनी साड़ी से एक
टुकड़ा फाड़कर उसे भगवान कृष्ण की अंगुली में बांधा था और यही वह सूत्र था, जिसके
कारण बाद में चीरहरण के वक्त द्रौपदी की रक्षा के लिए भगवान कृष्ण दौड़े चले आए थे.
दूसरी कहानी देवराज इन्द्र, देव गुरु बृहस्पति
और इद्रानी की भी है. कहते हैं असुरों से संग्राम में इन्द्र जब घबराकर देव गुरु
बृहस्पति ने इन्द्र के हाथ पर बांधा था और देवराज इन्द्र उसके बाद युद्ध में विजयी
हुए थे. कुछ कहानियाँ इतिहास से भी जुड़ी हुई है, जिनमें एक कहानी मेवाड़ की रानी की
भी है, जिन्होंने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजी थी और और हुमायूँ भी इस राखी
का मान रखते हुए अपनी राजपूत बहन की सहायता के लिए तुरन्त आ गए थे.के प्रसंग हमारी
आजादी की लड़ाई से जुड़ा हुआ है, विश्वकवि रविन्द्रनाथ टैगोर ने सन 1905 में बंगभंग
के विरोध में रक्षा बन्धन को नया रूप देते हुए इसी दिन बंगाल की जनता को विरोध
करने के लिए घरों से निकलने के लिए कहा था. विरोध की शुरुआत सभी धर्म के लोगों ने
एक-दूसरे के हाथ पर रक्षा सूत्र बांधकर की थी.
श्रावणी पर्व रक्षा बन्धन का सबसे
महत्वपूर्ण हिस्सा है उपाकर्म अर्थात गुरु-शिष्यों के जुड़ाव के साथ अध्ययन-अध्यापन
की शुरुआत. उपाकर्म के तीन हिस्से होते हैं. पहला प्रायश्चित, जिसमें किसी नदी या
सरोवर के तट पर शिष्य अपनी समस्त त्रुटियों के लिए प्रायश्चित करता है. स्नान के
उपरान्त उपाकर्म का दूसरा हिस्सा फलित होता है, जिसे हम संस्कार के रूप में जानते
हैं और इस संस्कार के अंतर्गत गुरु-शिष्य को यज्ञोपवीत धारण करवाता है, ताकि शिष्य
एक अनुशासन से आबद्ध हो सके. तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है स्वाध्याय
का. इसी दिन गुरु शिष्य को विद्दा का दान देना आरंभ करते हैं और श्रावणी पर्व
पूर्ण सार्थक होता है. हालांकि अब इस उपाकर्म के दृश्य अब दिखाई देना लगभग बंद हो
चुके हैं.
आज जब बाजार में बिकती बेहद खूबसूरत
राखियों की एक लंबी श्रृंखला मौजूद है, तब यह जानना जरूरी है कि पुराने दौर में
राखियाँ कैसी हुआ करती थीं और यह पर्व कैसे मनाया जाता था. पुराने दौर में घर की
महिलाएँ किसी नए सूती या रेशमी कपड़े के एक हिस्से में कुछ चावल रखकर उसे सूत में
बांधकर छोटी-छोटी पोटलियाँ बना दिया करती थीं, फिर इन्हें हल्दी या केसर से रंग
दिया जाता था. घर के आँगन को गोबर से ल लीपकर चावल से चौक बनाया जाता था और उस पर
एक घट की स्थापना की जाती थी. पूजन के बाद ब्राह्मण अपने यजमान को और बहनें अपने
भाइयों को वही चावल की छोटी सी पोटली वाली राखियाँ बांधा करती थी.
बीते दौर की बात करते हुए जब हम वर्तमान
का स्पर्श करते हैं, तो लगता है कि इस आधुनिक दौर में भी आज हमारे सामने जो
परिस्थितियाँ हैं, उसमें कुछ विवशताएँ पुराने दौर की तरह साकार हो उठी हैं. एक दौर
था, जब ससुराल में स्त्रियाँ इंतजार करती थीं कि कब सावन आए और वे मायके जा सकें.
अमीर खुसरो साहब ने उनकी इस भावना को अपनी कविता में बखूबीबखान किया है:
अम्मा मेरे बाबा को भेजो री,
कि सावन आया सावन रीI
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री,
अम्मा मेरे भैया को भेजो रीI
बेटी तेरा भैया तो बाला री,
कि सावन आया सावन रीI
बेटी मायके जाना चाहती है, लेकिन उसकी
विवशता है कि पिता बूढ़ा हो चुका है और भाई अभी छोटा है. ऐसे में बेटी मायके नहीं
जा पाती तो उसकी आँखें सावन की तरह बरस उठती हैं. आधुनिक दौर में वह विवशता तो
नहीं है, लेकिन अब जब लॉकडाउन का दौर है और एक महामारी ने बहुत सारे रास्ते बंद कर
रखे हैं, तब इस सावन में न जाने कितनी बेटियां हैं, जिनके मन में पीड़ा है कि वे
अपने भाइयों की कलाई पर इस वर्ष राखी नहीं बाँध पाएंगी. यह देखकर यही लग रहा है कि
कुछ विवशताएँ अब भी वैसी ही हैं और सावन की नमी कई आँखों को शायद इस वर्ष कुछ अधिक
ही भिगो जाए.
वैसे तो रक्षा बन्धन या श्रावणी पर्व में
धर्म और संस्कृति भी अपनी नमी से हृदय को भिगोते हैं और इसमें प्रकृति भी अपना
मुखर हरित सौन्दर्य उड़ेल देती है. प्रायश्चित, संस्कार, ज्ञान,
प्रेम,स्नेह,श्रद्धा, विश्वास, स्मृति, आनन्द और उत्सव के अनेक रंग संजोए यह पर्व
भारतीयता के उसी अमर गीत का एक हिस्सा है, जो गीत यदि किसी ह्रदय में गूंजता है तो
वह हृदय कभी सूखा नहीं रहता. संवेदना की नमी उसे श्रावण की पूर्णता का पर्व सदैव
सौंपती रहती है और कोई सूत या कोई रेशम का धागा उसे बन्धन में मुक्ति का अर्थ भी
सहज ही समझा देता है. सदा-सदा के लिए. जन्म-जन्मान्तर के लिए